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कई महिलाओं को स्वाभाविक रूप से गर्भ धारण करने में मुश्किल आती है. यहां तक कि कई परीक्षण रिपोर्ट सामान्य होने के बाद वे स्वाभाविक रूप से गर्भ धारण में असमर्थ रहती हैं. पुरुषों में 'इनफर्टिलिटी' उन प्रमुख कारकों में से एक है. पुरुषों में शुक्राणु की गुणवत्ता और उसकी मात्रा गर्भ धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और यह पुरुष प्रजनन क्षमता का एक निर्णायक कारक भी है. यदि स्खलित शुक्राणु (Herring Sperm) कम हों या खराब गुणवत्ता के हो तो गर्भ धारण करने की संभावनाएं 10 गुना कम और कभी-कभी इससे भी कम हो जाती है.
दिल्ली के इंदिरा आईवीएफ हॉस्पिटल की आईवीएफ एक्सपर्ट डॉ. सागरिका अग्रवाल का कहना है, "मेल फैक्टर इनफर्टिलिटी असामान्य या खराब शुक्राणु के उत्पादन के कारण हो सकती है. पुरुषों में यह संभावना हो सकती है कि उनके शुक्राणु उत्पादन और विकास के साथ कोई समस्या नहीं हो, लेकिन फिर भी शुक्राणु की संरचना और स्खलन की समस्याएं स्वस्थ शुक्राणु को स्खलनशील तरल पदार्थ तक पहुंचने से रोकती हैं और आखिरकार शुक्राणु फैलोपियन ट्यूब तक नहीं पहुंच पाता जहां निषेचन हो सकता है. शुक्राणु की कम संख्या शुक्राणु वितरण की समस्या का सूचक हो सकते हैं."
उन्होंने कहा कि आम तौर पर पुरुषों में बांझपन के लक्षण प्रमुख नहीं होते हैं और इसके कोई लक्षण नहीं होते और रोगी को शिश्न में उत्तेजना, स्खलन या संभोग में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है. यहां तक कि स्खलित वीर्य की गुणवत्ता और इसकी उपस्थिति नग्न आंखों से देखने पर सामान्य लगती है. शुक्राणुओं की गुणवत्ता की जांच केवल इनफर्टिलिटी के संभावित कारण को जानने के लिए किए जाने वाले चिकित्सा परीक्षण के माध्यम से की जा सकती है.
डॉ. सागरिका ने बताया कि मेल इनफर्टिलिटी के लिए तीन (या अधिक) प्राथमिक कारक हो सकते हैं. ओलिगोजोस्पर्मिया (शुक्राणुओं की कम संख्या), टेराटोजोस्पर्मिया (शुक्राणुओं की असामान्य रूपरेखा) और स्पर्म ट्रांसपोर्ट डिसआर्डर. मेल फैक्टर इनफर्टिलिटी के करीब 20 प्रतिशत मामलों में स्पर्म ट्रांसपोर्ट डिसआर्डर ही जिम्मेदार होते हैं.
उन्होंने बताया कि स्पर्म ट्रांसपोर्ट डिसआर्डर के कारण ज्यादातर पुरुषों में शुक्राणु के एकाग्रता में कमी आ जाती है और शुक्राणु महिला की कोख तक सुरक्षित रूप से पहुंचने में अक्षम होता है. वर्ष 2015-2017 के बीच किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, यह देखा गया कि आईवीएफ प्रक्रिया कराने को इच्छुक दंपतियों में, 40 प्रतिशत अंतर्निहित कारण पुरुष साथी में ही थे. प्रत्येक पांच पुरुषों में से एक पुरुष में स्पर्म ट्रांसपोर्ट की समस्या थी. सर्वेक्षण में उन पुरुषों को भी शामिल किया था जिन्होंने वेसेक्टॉमी करा ली थी, लेकिन अब बच्चे पैदा करना चाहते थे.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत का यह वक्तव्य निश्चय ही स्वागतयोग्य है कि अगर भारत में मुस्लिम नहीं रहेंगे, तो हिन्दुत्व नहीं रहेगा, लेकिन कई वाक्यों की तरह यह एक आदर्श वाक्य भर है - या संघ परिवार के दर्शन और व्यवहार में इसकी कोई वास्तविक-लोकतांत्रिक झलक भी मिलती है...? यह सवाल इसलिए अहम है कि पिछले 50 वर्षों में संघ परिवार और उसके संगठनों ने मध्यवर्गीय भारत के बड़े हिस्से में मुस्लिम-घृणा के जो बीज बोए हैं, उसकी फसल हम अब काटने को मजबूर हैं. मोहन भागवत अगर वाकई मानते हैं कि उनका हिन्दुत्व भारत में इस्लामी उपस्थिति के बिना अधूरा है, तो उन्हें यह बात अपने उन संगठनों और सहयोगियों को कहीं ज़्यादा संजीदगी से समझानी चाहिए, जो हर मौके पर मुस्लिम समुदाय को पाकिस्तान जाने की सलाह देने में हिचकते नहीं, उनको बस उनकी टोपी और दाढ़ी के आधार पर देशद्रोही से लेकर आतंकवादी तक ठहरा देते हैं.
वैसे हिन्दुत्व और इस्लाम के इस रिश्ते पर मोहन भागवत की टिप्पणी को कुछ और सावधानी से देखने की ज़रूरत है. उनके वक्तव्य से कम से कम दो भ्रम पैदा होते हैं. पहला तो यह कि हिन्दुस्तान का मसला बस दो पहचानों - हिन्दुत्व और इस्लाम का मसला है. हिन्दुत्व इतना सहनशील है कि उसकी वजह से इस्लाम को भी यहां जगह मिल गई है. लेकिन क्या हिन्दुत्व के भीतर अपनी समस्याएं नहीं हैं...? क्या धर्म के भीतर सवर्ण हिन्दू के जो अधिकार हैं, क्या वही पिछड़ों के भी हैं...? क्या हिन्दुत्व को जातियों ने इस बुरी तरह विभाजित नहीं कर रखा है कि उसकी अलग से कोई पहचान ही नहीं बची है...? हिन्दुत्व और संविधान की बात करते हुए मोहन भागवत जिस अम्बेडकर को याद कर रहे थे, हिन्दुत्व के बारे में उन्हीं की राय पढ़ लेते, तो अपने समाज के अंतर्विरोध को पहचानने में उन्हें कुछ आसानी होती. अम्बेडकर ने साफ कहा था कि जातियों के बिना हिन्दुत्व कुछ नहीं है - हिन्दू तभी एक होता है, जब उसे मुसलमान का विरोध करना होता है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
EPFO ने फिर से नौकरियों को लेकर डेटा जारी किया है. सितंबर 2017 से जुलाई 2018 के बीच नौकरियों के डेटा को EPFO ने कई बार समीक्षा की है. इस बार इनका कहना है कि 11 महीने में 62 लाख लोग पे-रोल से जुड़े हैं. इनमें से 15 लाख वो हैं जिन्होंने EPFO को छोड़ा और फिर कुछ समय के बाद अपना खाता खुलवा लिया. यह दो स्थिति में होता है. या तो आप कोई नई संस्था से जुड़ते हैं या बिजनेस करने लगते हैं जिसे छोड़ कर वापस फिर से नौकरी में आ जाते हैं.
EPFO लगातार अपनी समीक्षा के पैमाने में बदलाव कर रहा है. लगता है कि वह किसी दबाव में है कि किसी भी तरह से अधिक संख्या दिखा दें ताकि सरकार यह कह सके कि देखो कितनी नौकरियां दे दी. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के महेश व्यास ने कहा है कि जल्दबाज़ी में EPFO के डेटा से समझौता किया जा रहा है. 24 प्रतिशत लोग अगर EPFO से अलग होकर फिर से जुड़ रहे हैं तो इसका मतलब यह है कि नई नौकरियां नहीं बन रही हैं. इन लोगों को नई नौकरियों के खाते में नहीं डाला जा सकता है. महेश व्यास रोज़गार पर लगातार लिखते रहते हैं.
जो लोग नौकरी की आस में हैं, उनकी दुनिया में यह ख़बर है कि कितनी नौकरियां आ रही हैं और उनमें से कितनी दी जा रही हैं. इन नौजवानों को सब पता है. आप उनसे पूछिए कि बैंकिंग में कितनी वैकेंसी कम हो गई. साल दर साल गिन कर बता देंगे. रेलवे से लेकर सिविल परीक्षाओं के हिसाब हैं उनके पास. हम पत्रकारों को भले न पता हो लेकिन स्टाफ सलेक्शन कमिशन की परीक्षाओं के बारे में नौजवानों के पास सब हिसाब है. वो झट से बता देते हैं कि कैसे हर साल नौकरियों में गिरावट आ रही है. परीक्षा पास कर नौजवान बैठे हैं मगर ज्वाइनिंग नहीं मिल रही है.
नौजवान बताएं कि लगातार देखने के बाद सिस्टम और सियासत के बारे में उनकी क्या समझ बनी है? क्या उनके सवालों की सूची में इन सब बातों का स्थान होगा या फिर वे जाति देखेंगे, धर्म देखेंगे, अपना अपना फायदा देखेंगे? इम्तहान इन नौजवानों को देना है. मुझे नहीं. अत मित्रों मुझे मुक्ति दें. मुझे व्हाट्सएप करना बंद करें. इनबॉक्स करना बंद करें.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.