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हर माता पिता चाहता है कि वो अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दे। बच्चों का भविष्य बनाने में अभिभावक ही मुख्य भूमिका निभाता है। बच्चों की सही देखभाल करने को लेकर यदि आप असमंजस की स्थिति में हैं तो आचार्य चाणक्य आपकी मदद कर सकते हैं। कुशल रणनीतिकार और अर्थशास्त्री चाणक्य ने व्यक्ति के जीवन के हर पहलू पर अपने अनमोल विचार दिए हैं। इस लेख के माध्यम से जानते हैं कि चाणक्य नीति में बच्चों के लालन-पालन को लेकर माता-पिता को क्या सलाह दिए गए हैं।

पांच साल की आयु के बाद
श्लोक के मुताबिक, कौटिल्य कहते हैं कि यदि संतान की आयु पांच साल की है तो अब उसे गलती करने पर डांटना चाहिए। इस आयु में बच्चा चीजों को समझना शुरू कर देता है। इस पड़ाव में बच्चे को प्यार-दुलार के साथ गलतियों पर डांट भी पड़नी चाहिए।

विष्णु गुप्त के अनुसार, दस से पंद्रह साल के बच्चों के साथ बर्ताव में सख्ती की जा सकती है। ये वो उम्र होती है जब वो जिद करना शुरू कर देते हैं। यदि संतान गलत बातों के लिए हट करता है तो उसे सख्ती से समझाना चाहिए। साथ ही इस बात का ध्यान रखें कि माता पिता गलत शब्दों का इस्तेमाल न करें।

बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता है उसकी समझदारी भी बढ़ने लगती है। चाणक्य कहते हैं कि जब बच्चा सोलह बरस पूरे कर ले तब उसके साथ एक दोस्त जैसा व्यवहार करना चाहिए। उसे डांट-डपटकर चुप कराने के बजाय बातचीत करके उसे समझाना चाहिए।
नोट: यह सूचना इंटरनेट पर उपलब्ध मान्यताओं और सूचनाओं पर आधारित है। बोल्डस्काई लेख से संबंधित किसी भी इनपुट या जानकारी की पुष्टि नहीं करता है। किसी भी जानकारी और धारणा को अमल में लाने या लागू करने से पहले कृपया संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लें।
हर साल भारत में 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिवस की शुरुआत भारत के महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय द्वारा वर्ष 2008 में की गई थी। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य लड़कियों के खिलाफ भेदभाव पूर्ण स्थिति को खत्म करना, उन्हें विकास की दिशा प्रदान करना, लड़कों के बराबर के अधिकार प्रदान करना और उनके खिलाफ हो रहे अपराधों को रोकना है। लड़कियों को लेकर एक गहरी मानसिकता है कि लड़कियों को अधिक पढ़ाना ठीक नहीं है, लड़कियों को घर से बाहर नहीं जाना चाहिए आदि। इस मानसिकता को बदलने की अधिक आवश्यकता है। समय के साथ इस मानसिकता में बदलाव तो देखा जा रहा है, लेकिन लड़कियों के खिलाफ हो रहे अपराधों में कोई खास कमी नहीं देखी गई है। लेकिन ये भी सच है कि अब पहले की तुलना में लड़किया उच्च से उच्च शिक्षा प्राप्त कर पा रही हैं। अपना करियर बना रही है और देश के हर क्षेत्र में अपना नाम बना रही हैं।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना
इस योजना का महत्व है बेटियों/लड़कियों के प्रति लोगों के बीच पनप रही खराब मानिसिकता को बदलना और उनके विकास और देश के विकास के लिए उनकी शिक्षा पर जोर देना है। साथ ही लोगों में सामूहिक चेतना को जगाना है।
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का कुछ असर तो देखने को मिलता है। जहां एक समय था कि लड़कियों को पैदा भी नहीं होने दिया जाता था पढ़ना-लिखान तो दूर की बात है। वहीं आज एक समय है कि लड़कियों पढ़ भी रही हैं और अपने विकास के साथ ही साथ देश के विकास की ओर बढ़ भी रही हैं। आइए आपको पिछले कुछ सालों के लिंग अनुपात के माध्यम से समझाएं।
वर्ष 2014-15 में लिंग अनुपात दर भारत में 918 थी जिसमें वर्ष 2020-21 में 19 अंकों का सुधार देखने को मिला है। जनवरी 2021 में स्कूलों में भी इसका असर देखने को मिला जहां पहले स्कूलों में लड़कियों के नामंकन का अनुपात 77.45 था वह वर्ष 2021 में बढ़कर 81.23 हो गया। इसी के साथ आपको बता दें कि 2014 से 2018 में 5 वर्ष के आयु की बच्चियों की मृत्यु दर में भी कमी देखी गई है। जहां 2014 में मृत्यु दर 45 थी वहीं 2018 में ये दर गिर कर 36 हो गई। जब हर क्षेत्र की बात की जा रही है तो आपके लिए ये जानन आवश्यक है कि संस्थागत प्रसव में भी सुधार देखने को मिला है, जिसमें 2014-15 में 87 प्रतिशत लड़कियां उच्च शिक्षा के लिए एनरोल हुई थी और वर्ष 2020-21 में प्रतिशत बढ़ कर 94.8 प्रतिशत का हो गया है। यानी 2015 से 2020 तक में उच्च शिक्षा में लड़कियों की एनरोलमेंट प्रतिशत में 18 प्रतिशत की बढ़ते देखी गई है।
इस योजना में आगे बढ़ाने और इसके बारे में बेटियों को बताने और उन्हें मनाने के लिए एक अभियान की शुरुआत की गई थी। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि लड़कियों का जन्म, उनका अच्छा पालन-पोषण और शिक्षा उन्हें बिना किसी भेदभाव के मिले। ताकि आगे चलकर वह एक सश्कत नागरिक बने और देश के निर्माण की दिशा में कार्य करें। हर क्षेत्र में अपना योगदान दें और उनकी उपस्थिति को हर क्षेत्र में दर्ज किया जा सकें। इस मुद्दे को बढ़ावा देने और योजना के उद्देश्य को समझाने के लिए, लोगों में जागरूकता पैदा करने और सूचना का प्रसारण सही ढंग से करने के लिए 360 मिडिया दृष्टिकोण को अपनाया गया।
इस योजना को पूरा सफल बनाने के लिए क्या-क्या किया गया
• मिडिया के माध्यम से क्षेत्रीय भाषा में रेडियो स्पॉट या जिंगल चलाए गए।
• आउटडोर और प्रिंट मिडिया का सहारा लिया गया।
• टेलीविजन पर योजना का प्रचार किया गया।
• महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय, विकास मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रलाय की वेबसाइट, माई गवर्नमेंट एप, विकासपीडिया जैसी कई सोशल मिडिया प्लेटफॉर्म का प्रयोग किया गया ताकि योजना को लेकर जागरूकता फैलाई जा सकें।
• मोबाइल प्रदर्शनी लगाई गई।
• अंग्रेजी और हिंदी भाषा के साथ क्षेत्रीय भाषाओं में एसएमएस अभियान की शुरुआत की गई।
• ई-मेल, ब्रोशर, हैंड-आउट्स, होर्डिंग आदि का प्रयोग कर योजना के बारे में जानकारी देने का प्रयास किया गया।
भोपाल : Madhya Pradesh News: मध्य प्रदेश के उमरिया जिले की जोधइया बाई बैगा उन 91 लोगों में शुमार हैं जिन्हें इस बार पद्म श्री से नवाजा जाएगा. 84 वर्ष उम्र पार कर चुकीं जोधइया बाई ने रंगों से अपनी और उमरिया जिले की अलग पहचान बनाई है लेकिन उसी ज़िले में वे एक अदद आवास के लिये तरस रही हैं. उनका कहना है कि पिछले साल प्रधानमंत्री से मुलाकात के दौरान भी उन्होंने इसका ज़िक्र किया था, लेकिन अभी तक आवास नहीं मिला, वहीं प्रशासन का कहना है उनका नाम लिस्ट में नहीं है. जोधइया अम्मा ने कहा, "मैं हाथ जोड़कर बोलती हूं. मोदीजी, शिवराजजी से मुझे मकान दे दो, मैं बहुत गरीब हूं अकेले न बना खा सकती हूं, मैं कहां रहूं."

जोधइया अम्मा उमरिया ज़िले के लोढ़ा गांव में मड़ैय्या में रहती हैं. इस उम्र में कूची ने कमाल किया है. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सम्मानित हुईं, अब पद्मश्री मिला है लेकिन इस उम्र में बर्तन भी मांजती हैं, घर में झाड़ू भी लगाती हैं. उनके संघर्ष की कहानी 14 साल की उम्र में शादी से शुरू हो गई. पति की मौत के बाद दो बच्चों को पाला, मज़दूरी की, पत्थर तोड़े, देसी शराब भी बेची. 70 साल की उम्र में शांति निकेतन के आशीष स्वामी से मिलीं. 2008 में जनगण तस्वीर खाना से कूची पकड़ी, फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. आवास को लेकर कहती हैं, "अधिकारियों, मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक ने आश्वासन दिया लेकिन घर नहीं मिला. उमरिया गई, भोपाल गई. भारत भवन में भी बोला. पिछले साल मोदीजी ने बोल दिया मिल जाएगा तुम्हारा मकान लेकिन आज तक नहीं मिला. मैं हाथ जोड़कर मोदीजी, शिवराजजी से बोलती हूं, मकान दे दो."

जोधइया अम्मा के परिवार में दो बेटे-बहू और नाती हैं. दोनों बेटे मजदूरी करते हैं. बेटों को आवास मिला है, प्रधानमंत्री आवास के नियम कहते हैं कि आवास योजना ग्रामीण के लिए आवेदन करने वाला गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाला होना चाहिए. आवेदक के नाम पर देश में कही भी पक्का मकान नहीं होना चाहिए. आवेदन करने वाले परिवार की वार्षिक आय 3 लाख से 6 लाख के बीच होना चाहिए. आवास योजना के तहत एक परिवार में केवल एक ही आवास निर्माण किया जाएगा. ऐसे में प्रशासन का कहना है, वो मजबूर है, सीईओ जनपद पंचायत केके रैकवार ने कहा,"इनका परीक्षण मैंने किया है. राज्य डाटा सूची में इनका नाम नहीं है. आवास प्लस में भी नाम नहीं है. इनके दो बेटों को लाभ मिला है. सरकार की अन्य स्कीम उज्जवला का लाभ मिला है, पेंशन मिली है. शासन की जो नीति है उसमें स्टेट डाटा या आवास प्लस में नाम जरूरी है इस संबंध में शासन को निर्णय लेना है.".

जोधइया अम्मा इस उम्र में अपनी कूची से दुनियां में रंग भर रही हैं, लेकिन बेरंग नियम उनके सपनों के आड़े आ रहे हैं. भोपाल में मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय में जोधइया अम्मा के नाम से एक पक्की दीवार बनी है लेकिन दुर्भाग्य देखिये सत्ता के शीर्ष से आश्वासन मिलने के बाद भी उनके खाते में एक पक्की दीवार नहीं आई जिन पर सिर्फ उनका नाम लिखा हो.अब शासन को तय करना है, पद्मश्री जोधइया अम्मा के लिये क्या नियम शिथिल होंगे.
आसमान में रंग-बिरंगी उड़ती हुई पतंगें हर किसी का मन मोहती हैं। इसी के साथ पतंगें आपको कई तरह से जीवन जीने का तरीका भी सिखा देती हैं। आप पतंग से अनुसाशन, बैलेंस, कंट्रोल, सफलता की ऊंचाई तक पहुंचने के लिए जुनून, और अच्छी जिंदगी जीने के तरीके सीख सकते हैं। आज पतंगों की कई खासियतों को समेटे हुए अंतर्राष्ट्रीय पतंग दिवस भी है। जो हर साल 14 जनवरी को मकर संक्रांति पर शुरू होता है। गुजरात में इस दिन सार्वजनिक अवकाश होता है, जिससे लोग बिना किसी टेंशन के पतंग उत्सव को अच्छे से सेलिब्रेट कर सकें। पतंगें भारत समेत कई देशों में काफी उत्साह के साथ उड़ाई जाती हैं, इसकी तैयारी के लिए लोग महीनों पहले से लग जाते हैं। भारत में पतंग उत्सव गुजरात समेत राजस्थान में मकर संक्रांति पर काफी हर्षोंउल्लास के साथ मनाते हैं। आज इंटरनेशनल काइट डे 2023 पर पतंगों के इतिहास और भारत में इसकी लोकप्रियता क्यों और कैसे इतनी ज्यादा हो गई, इन सब के बारें में जानते हैं

आइये जानते हैं इन रंग बिरंगीं पतंगों की शुरूआत कैसे हुई-
ऐसा माना जाता है कि पतंग का आविष्कार चीन में हुआ। अपने दुश्मनों को डराने के लिए चीन में डरावनी शक्लों वाली पतंगों को बनाकर उड़ाते थे, जिससे दिखकर दुश्मन डर कर भाग जाते थे, उनको लगता था कि आराश में राक्षस उड़ रहे हैं, जिनको देखकर कर युद्ध करने के लिए आने वाले दुश्मन देश की सेना भाग जाती थी। सबसे पहले 28वीं शताब्दी ई.पू. पहली पतंग बनी थी।

लखनऊ के नवाब और पतंगबाज़ी की लोकप्रियता
इसके बाद बाद भारत में पतंग उड़ाने का शौक भारत का चुका था। 1700 के दशक में भारत में पतंगबाजी की शुरुआत हुई। भारत में पतंगबाजी की लोकप्रियता सबसे ज्यादा लखनऊ में नवाबों के वक्त अपने चरम पर रही। नवाब वाजिद अली शाह पतंगबाजी के बेहद शौकीन थे। नवाब वाजिद अली के काल में बड़ा सूखा पड़ा, जिसमें उन्होंने लोगों की मदद के लिए, एक तरीका खोजा, नबाव साहब पतंग उड़ाने से पहले कुछ सोना, चांदी या फिर पैसे उसमें बंधवा देते थे, पतंग कटने के बाद जो उन्हें पा जाता, उसका एक दिन का अपने और अपने परिवार का गुजारा करने के लिए बंदोबस्त हो जाता था।

लखनऊ पतंगबाज़ी में पतंगों के अजीबोगरीब नाम
लखनऊ में एक पतंग इजाद हुई जिसका नाम ‘तिक्कल' था। लखनऊ में ही पतंगबाजी या कनकौवे बाजी, बड़ी पतंग यानि ‘कमकउवा जैसे नाम से जानी जाती थी। इन पतंगों का शौक जब लखनऊ के नवाबों को हुआ तब से पतंगों को नई दिशा ही मिल गई। अलग अलग देशों में सिर्फ पतंगे उड़ाई जाती थीं, लेकिन लखनऊ में में पतंगें लड़ाने की कला ईजाद हुई।

सन 1752 बेंजामिन फ्रैंकलिन ने पतंग की मदद से बिजली को बिजली साबित किया। बेंजामिन फ्रैंकलिन ने एक तूफानी रात को बरसात में पतंग को उड़ाया, जब बिजली कड़कती तो उन्हें एक ऊर्जा महसूस हुई, उन्होंने धागे में एक चाभी बांध दी,तब देखा कि उस जगह पर चमक उठ रही है जिस स्थान पर चाभी बंधी है । इस तरह उन्होंने ये पाया कि बिजली तो प्रकृति ने दी हुई है।

रात में उड़ाई जाती है 'तुक्कल' नाम की पतंग
अंतर्राष्ट्रीय पतंग दिवस की शुरुआत भारत में हुई, जहां यह सबसे लोकप्रिय गुजरात के अहमदाबाद शहर में मनाया जाता है। इस त्योहार को उत्तरायण के रूप में जानते हैं। दिन के दौरान, कलाबाज़ अपने पतंगों से प्रदर्शन करते हैं, जबकि रात में, 'तुक्कल' नाम की जगमगाती पतंगें आसमान में अटखेलियां खाती नजर आने लगती हैं।