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मध्य भारत का ग्वालियर शहर बहुत घना बसा हुआ है. इसी शहर के बीच स्थित पठारी इलाक़े में एक क़िला बड़ी शान-ओ-शौक़त के साथ सिर उठाए खड़ा दिखता है. आठवीं सदी में बना ग्वालियर का क़िला देश के सबसे बड़े क़िलों में से एक है. इस क़िले के कंगूरों, मीनारों, दीवारों की महीन चित्रकारियों और गुम्बदों से घिरा एक छोटा सा मंदिर है. नौवीं सदी में बना ये मंदिर चट्टान को काटकर बनाया गया है. इसे चतुर्भुज मंदिर कहा जाता है. ये भारत के दूसरे प्राचीन मंदिरों की ही तरह की बनावट वाला है. लेकिन, इसकी एक ख़ूबी ऐसी है जो चतुर्भुज मंदिर को अनूठा बनाती है.
ये है ज़ीरो का ग्राउंड ज़ीरो. पूरी दुनिया में ये मंदिर वो सब से पुरानी जगह है, जहाँ पर शून्य उकेरा हुआ मिला है. मंदिर में नौवीं सदी के एक शिलालेख में 270 अंकित है. ये दुनिया का सबसे पुराना शून्य है. गणित और विज्ञान के लिहाज़ से शून्य का आविष्कार बहुत बड़ी कामयाबी थी. आज की तारीख़ में दुनिया की हर तरक़्क़ी की बुनियाद इसी शून्य पर टिकी हुई है. गणित हो, प्रमेय हो, भौतिकी हो या इंजीनियरिंग, आज के दौर की हर तकनीक की शुरुआत इसी शून्य से मुमकिन हुई है.
लेकिन, भारतीय संस्कृति में ऐसी क्या ख़ास बात है, जिसने इतने महत्वपूर्ण आविष्कार को जन्म दिया, जो आधुनिक भारत और आधुनिक दुनिया की बुनियाद बना?

शून्य से शून्य तक
मुझे एक भारतीय पौराणिक विशेषज्ञ देवदत्त पटनायक का सुनाया हुआ एक क़िस्सा याद आता है. ये क़िस्सा पटनायक ने टेड टाक्स के दौरान सुनाया था, जो सिकंदर महान से जुड़ा हुआ है. जब दुनिया जीतते हुए सिकंदर भारत पहुंचा, तो उसकी मुलाक़ात एक नागा साधु से हुई. पूरी तरह से नग्न वो साधु बहुत अक़्लमंद इंसान था. वो शायद एक योगी था. वो योगी एक चट्टा पर बैठा हुआ आसमान को ताक रहा था.
सिकंदर महान ने उस योगी से पूछा, "आप क्या कर रहे हैं?"
योगी ने सिकंदर को जवाब दिया, "मैं शून्य का तजुर्बा कर रहा हूं. तुम क्या कर रहे हो?"
सिकंदर ने कहा कि, "मैं दुनिया जीत रहा हूं."
इसके बाद वो दोनों हंसने लगे. शायद वो दोनों मन में सोच रहे थे कि सामने वाला शख़्स कितना बड़ा मूर्ख है. अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा है.
ये क़िस्सा ग्वालियर के क़िले में स्थित मंदिर में शून्य अंक उकेरे जाने से बहुत पहले का है. लेकिन उस नागा साधु का शून्य में ध्यान लगाने का सीधा ताल्लुक़ ज़ीरो के आविष्कार से है. दूसरी सभ्यताओं के बरक्स, भारतीय संस्कृति में शून्य को लेकर लंबा-चौड़ा दर्शन मौजूद है. भारतीय संस्कृति में ध्यान और योग जैसे तरीक़ों से मस्तिष्क को ख़ाली करने का तरीक़ा निकाला गया.
हिंदू और बौद्ध, दोनों ही धर्मों में शून्य के सिद्धांत और इससे जुड़ी शिक्षाएं मिलती हैं. नीदरलैंड के ज़रओरिगइंडिया फ़ाउंडेशन के डॉक्टर पीटर गोबेट्स ज़ीरो प्रोजेक्ट से जुड़े हुए हैं. ये फाउंडेशन शून्य की उत्पत्ति से जुड़ी हुई रिसर्च कर रही है. उन्होंने एक लेख में शून्य के आविष्कार को लेकर लिखा है कि, "गणित के शून्य की उत्पत्ति बौद्ध दर्शन के शून्यता के सिद्धांत से हुई मालूम होती है. इस सिद्धांत के मुताबिक़ इंसान के मस्तिष्क को विचारों और प्रभावों से मुक्त किया जाता है."
यही नहीं प्राचीन काल से ही भारत में गणित को लेकर ज़बरदस्त दिलचस्पी रही है. प्राचीन काल के भारतीय गणितज्ञ बड़े-बड़े अंकों में गणनाएं करते थे. ये गणनाएं अरबों-खरबों से लेकर पद्म और शंख तक जाती थीं.

जबकि प्राचीन ग्रीक सभ्यता के लोग दस हज़ार की संख्या से आगे नहीं बढ़ सके. प्राचीन भारतीय दर्शन में अनंत की गणना भी अलग थी. हिंदू ज्योतिषी और गणितज्ञ आर्यभट्ट (जन्म- ईस्वी 476) और ब्रह्मगुप्त (जन्म- ईस्वी 598) के बारे में मशहूर है कि उन्होंने ही आधुनिक दशमलव सिस्टम और ज़ीरो के इस्तेमाल की बुनियाद रखी. हालांकि ग्वालियर के क़िले में स्थित मंदिर में अंकित शून्य को दुनिया में ज़ीरो की सबसे पुरानी मिसाल कहा जाता है. लेकिन, तक्षशिला से जुड़ी प्राचीन भारतीय बख़्शाली पांडुलिपि में भी शून्य दर्ज हुआ पाया गया है.
इस पांडुलिपि के बारे में हाल ही में पता चला है कि ये तीसरी या चौथी सदी की रचना है. अब इसे ही दुनिया में शून्य की सबसे पुरानी मिसाल माना जाता है. ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी में गणित के प्रोफ़ेसर मार्कस ड्यू सोटोय ने यूनिवर्सिटी की वेबसाइट में लिखा है कि, "शून्य की एक अंक के तौर पर कल्पना, गणित के इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि है. इसकी शुरुआत हम बख्शाली की पांडुलिपि में दर्ज बिंदु से देखते हैं. आज हमें ये पता है कि भारत के प्राचीन गणितज्ञों ने तीसरी सदी में ही गणित के विचार का ऐसा बीज रोपा था, जो आज आधुनिक दुनिया की बुनियाद है. इन खोजों से साफ़ है कि प्राचीन काल में भारतीय उप-महाद्वीप में गणित की विधा ख़ूब फल-फूल रही थी."
ज़ीरो का आविष्कार भारत के सिवा किसी और देश में क्यों नहीं हुआ, इसकी भी बहुत दिलचस्प वजहें हैं. एक विचार तो ये है कि बहुत सी सभ्यताओं में शून्य को लेकर ख़यालात अच्छे नहीं थे. जैसे कि यूरोप में ईसाइयत के शुरुआती दिनों में धर्मगुरुओं ने ज़ीरो के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी. उनका मानना था कि ईश्वर ही सब कुछ है, ऐसे में जो अंक शून्यता की नुमाइंदगी करे, वो शैतानी होता है. तो भारत के आध्यात्मिक ज्ञान का शून्य के आविष्कार से गहरा नाता है. अध्यात्म ने ही ध्यान को जन्म दिया, जिससे आगे चल कर ज़ीरो का आविष्कार हुआ.
प्राचीन भारत के एक और ज्ञान का आधुनिक दुनिया से गहरा ताल्लुक़ है. ये हैं जुड़वां नंबर या बाइनरी नंबर. शून्य की परिकल्पना जुड़वां अंकों की बुनियाद है. और ये बाइनरी नंबर ही आधुनिक कंप्यूटर की आधारशिला हैं.
::/fulltext::कुछ दिन पहले सुबह-सुबह अख़बार उठाया तो एक ख़बर ने अपनी ओर ध्यान खींच लिया. ख़बर में बताया गया था कि दिल्ली के कृष्णा नगर इलाके के एक सरकारी स्कूल में एक छात्र ने स्कूल के ही दूसरे छात्र पर चाकू से हमला किया था. बर के मुताबिक़ दोनों छात्रों के बीच सुबह की प्रार्थना के बाद झगड़ा हुआ, जिसके बढ़ने पर एक छात्र अधिक ग़ुस्से में आ गया और उसने इस हमले को अंजाम दिया. ऐसा नहीं है कि स्कूली छात्रों के बीच हुई आपसी झड़प का यह कोई पहला मामला हो. इससे पहले भी स्कूलों में छात्रों के बीच ग़ुस्से में एक दूसरे के साथ मार पीट के आरोप लगते रहे हैं.
गौर करने वाली बात यह है कि हिंसा की ऐसी कई घटनाओं में किशोर उम्र के बच्चे शामिल पाए जा रहे हैं. बच्चों में ग़ुस्से की यह प्रवृत्ति चिंताजनक हालात पैदा कर रही है.
किशोरों में युवाओं से ज़्यादा ग़ुस्सा
संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में कुल 120 करोड़ किशोर हैं जिनकी उम्र 10 से 19 साल के बीच हैं. यूनिसेफ़ की यह रिपोर्ट बताती है कि साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में किशोरों की संख्या 24 करोड़ से अधिक है. यह आंकड़ा भारत की जनसंख्या का एक चौथाई हिस्सा है. इतना ही नहीं दुनिया भर के सबसे अधिक किशोर विकासशील देशों में ही रहते हैं. बच्चों में ग़ुस्से की प्रवृत्ति उनकी उम्र के अनुसार बदलती जाती. साल 2014 में इंडियन जर्नल साइकोलॉजिकल मेडिसिन में प्रकाशित एक रिसर्च के अनुसार लड़कों में लड़कियों के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिलता है.
इस रिसर्च में शामिल लोगों में जिस समूह की उम्र 16 से 19 वर्ष के बीच थी उनमें ज़्यादा ग़ुस्सा देखने को मिला जबकि जिस समूह की उम्र 20 से 26 वर्ष के बीच थी उनके थोड़ा कम ग़ुस्सा. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि किशोर उम्र में युवा अवस्था के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिलता है. इसी तरह लड़कों में लड़कियों के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिला. हालांकि, इसी रिसर्च के अनुसार 12 से 17 आयु वर्ग की लड़कियों में क़रीब 19 प्रतिशत लड़कियां अपने स्कूल में किसी न किसी तरह के झगड़े में शामिल मिलीं.
यह रिसर्च भारत के 6 प्रमुख स्थानों के कुल 5467 किशोर और युवाओं पर की गई थी. इस रिसर्च में दिल्ली, बेंगलुरु, जम्मू, इंदौर, केरल, राजस्थान और सिक्किम के किशोर और युवा शामिल थे. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर बच्चों की इस हिंसक प्रवृत्ति के पीछे क्या वजह है?

मोबाइल गेम का असर
मनोवैज्ञानिक और मैक्स अस्पताल में बच्चों की कंसल्टेंट डॉक्टर दीपाली बत्रा बच्चों के हिंसक होने के पीछे कई कारण बताती हैं. वो कहती हैं कि सबसे बड़ी वजह है यह पता लगाना कि बच्चों पर उनके परिजन कितनी नज़र रख रहे हैं. डॉक्टर बत्रा कहती हैं, ''बड़े शहरों में माता-पिता बच्चों पर पूरी तरह से निगरानी नहीं रख पाते. बच्चों को व्यस्त रखने के लिए उन्हें मोबाइल फ़ोन दे दिया जाता, मोबाइल पर बच्चे हिंसक प्रवृत्ति के गेम खेलते हैं.''
कोई वीडियो गेम बच्चों के मस्तिष्क पर कैसे असर कर सकता है, इसके जवाब में डॉ. बत्रा कहती हैं, ''मेरे पास जितने भी बच्चे हिंसक स्वभाव वाले आते हैं उनमें देखने को मिलता है कि वे दिन में तीन से चार घंटे वीडियो गेम खेलने में बिताते हैं. इस खेल में एक दूसरे को मारना होता है, जब आप सामने वाले को मारेंगे तभी जीतेंगे और हर कोई जीतना चाहता है. यही वजह है कि वीडियो गेम बच्चों के स्वभाव को बदलने लगते हैं.''
साल 2010 में अमरीका के सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला लिया था कि बच्चों को वो वीडियो गेम ना खेलने दिए जाएं जिसमें हिंसक प्रवृत्ति जैसे हत्या या यौन हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा हो. इस फ़ैसले के पांच साल पहले कैलिफ़ोर्निया के गवर्नर ने अपने राज्य में वायलेंट वीडियो गेम क़ानून बनाया था, जिसके तहत 18 साल से कम उम्र के बच्चों को हिंसक वीडियो गेम से दूर रखने की बात थी.
इसके अलावा अमरीकन साइकोलॉजी की तरफ़ की गई रिसर्च में भी इस बारे में बताया गया था कि वीडियो गेम इंसानों के स्वभाव को बदलने में अहम कारक साबित होते हैं.

पॉर्न तक पहुंच
मोबाइल तक बच्चों की पहुंच के साथ-साथ इंटरनेट भी बच्चों को आसानी से उपलब्ध हो जाता है और इसके साथ ही शुरू होती है यूट्यूब से लेकर पोर्न वीडियो की दुनिया. देहरादून की रहने वाली पूनम असवाल का बेटा आयुष अभी महज़ 5 साल का है, लेकिन इंटरनेट पर अपने पसंदीदा वीडियो आसानी से तलाश लेता है. पूनम बताती हैं कि उनके बच्चे ने उन्हीं से मोबाइल पर वीडियो देखने सीखे.
पूनम अपने बच्चे की इस आदत से बेहद परेशान हैं, अपनी परेशानी बताते हुए वह कहती हैं, ''शुरू में तो मुझे ठीक लगा कि आयुष मोबाइल पर व्यस्त है, लेकिन अब यह परेशानी का सबब बनता जा रहा है, वह हिंसक कार्टून के वीडियो देखता है. इंटरनेट पर गाली-गलौच और अश्लील सामग्री के लिंक भी रहते हैं, डर लगा रहता है कि कहीं वह उन लिंक पर क्लिक कर ग़लत चीज़ें ना देख ले.''
डॉक्टर बत्रा भी इस बारे में विस्तार से बताती हैं, ''इंटरनेट की आसान पहुंच से पोर्न भी बच्चों को आसानी उपलब्ध हो रहा है और यह किसी एडिक्शन की तरह काम करता है. इसमें दिखने वाली हिंसा का बच्चों के मस्तिष्क पर बहुत बुरा असर पड़ता है.''
पोर्न के असर को जांचने के लिए साल 1961 में मनोवैज्ञानिक एलबर्ट बंडुरा ने एक प्रयोग किया था. उन्होंने बच्चों को एक वीडियो दिखाया जिसमें एक आदमी गुड़िया को मार रहा था, इसके बाद उन्होंने बच्चों को भी एक-एक गुड़िया पकड़ाई. गुड़िया मिलने के बाद उन बच्चों ने भी अपनी-अपनी गुड़िया के साथ वही किया की जो वीडियो वाला आदमी कर रहा था.

मां-बाप का आपसी रिश्ता
शहरी जीवन में माता-पिता दोनों ही नौकरीपेशा हो गए हैं, ऐसे में आमतौर पर बच्चों के लिए वक़्त निकालना मुश्किल होता जा रहा है. इसके साथ-साथ विवाहेत्तर संबंध के मामले भी बहुत हो रहे हैं. माता पिता का आपस में कैसा रिश्ता है, इसका असर सीधे तौर पर बच्चों पर पड़ता है.
डॉक्टर बत्रा इस विषय में कहती हैं, ''जब बच्चे देखते हैं कि उनके माता-पिता जो कि उसे हमेशा शांत रहने और सभ्य व्यवहार करने की सलाह देते हैं, वे ख़ुद ही आपस में झगड़ रहे हैं तो बच्चा भी ग़ुस्सा आने पर हिंसक रुख अपनाने लगता है. बच्चों का दिमाग़ इस बात पर स्थिर रहता है कि चीज़ें उनके अनुसार ही होनी चाहिए, जब कोई चीज़ उनकी समझ के विपरीत जाती हैं तो वे अलग ढंग से रिएक्ट करते हैं और इसका नतीजा कई मौक़ों पर हिंसक रूप ले लेता है.''
डॉक्टर बत्रा एक और बात कि ओर हमारा ध्यान ले जाती हैं, वे कहती हैं कि माता-पिता के आपसी रिश्ते के साथ-साथ उनका बच्चे के प्रति कैसा व्यवहार है यह भी बहुत अधिक मायने रखता है. अपने एक क्लाइंट के बारे में डॉक्टर बत्रा ने बताया, ''मेरे एक क्लाइंट थे जो अपने बच्चे को छोटी-छोटी ग़लतियों पर बुरी तरह मारते-पीटते थे, इसका नतीजा यह हुआ कि उनका बच्चा अपना गुस्सा साथी बच्चों पर निकालता था. वह स्कूल में बहुत झगड़ता था.''
बीबीसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि लंबे वक़्त तक जब माता-पिता के संबंध ख़राब चलते हैं तो इससे बच्चों पर उनकी उम्र के अनुसार असर पड़ता है, जैसे नवजात बच्चे की दिल की धड़कने बढ़ जाती हैं, 6 माह तक के बच्चे हार्मोंस में तनाव महसूस किया जाता है वहीं थोड़े बड़े बच्चों को अनिंद्रा जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है.

हॉर्मोन में आता है बदलाव
मोबाइल फ़ोन, इंटरनेट की उपलब्धता और माता-पिता का नौकरी पेशा होना यह सब आधुनिक जीवन के उदाहरण हैं, लेकिन बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति पहले के वक़्त में भी देखने को मिलती रही है. जब मोबाइल या इंटरनेट का बहुत अधिक चलन नहीं था तब भी बच्चे हिंसक रुख़ दिखाया करते थे, इसकी क्या वजह है. डॉक्टर बत्रा बताती हैं कि किशोर अवस्था में आने पर बच्चों में हॉर्मोनल बदलाव होने लगते हैं, उनका मस्तिष्क और शरीर के अन्य अंग तेजी से विकसित हो रहे होते हैं.
वे बताती हैं, ''किशोरावस्था 11 से 16 साल तक समझी जाती है, इस दौरान बहुत तेज़ी से दिमाग़ का विकास हो रहा होता है, इस उम्र में दिमाग़ के भीतर लॉजिकल सेंस का हिस्सा विकसित हो रहा होता है, लेकिन इमोशनल सेंस वाला हिस्सा विकसित हो चुका होता है. ऐसे में बच्चा अधिकतर फ़ैसले इमोशनल होकर लेता है.''
यही वजह है कि इस उम्र के दरम्यान बच्चों के व्यवहार में आसपास के हालात का सबसे अधिक असर पड़ता है, वे चिड़चिड़े-ग़ुस्सैल और कई मौकों पर हिंसक हो जाते हैं.

कैसे पहचाने बच्चे का बदलता व्यवहार
बच्चों के व्यवहार में बदलाव आ रहा है, इसकी पहचान कैसे की जाए. इस बारे में डॉक्टर बत्रा बताती हैं, ''अगर छोटी उम्र में ही बच्चा स्कूल जाने से आना-कानी करने लगे, स्कूल से रोज़ाना अलग-अलग तरह की शिकायतें आने लगे, साथी बच्चों को गाली देना, किसी एक काम पर ध्यान ना लगा पाना. ये सभी लक्षण दिखने पर समझ जाना चाहिए कि बच्चे के व्यवहार में बदलाव आने लगा है और अब उस पर ध्यान देने का वक़्त है.
ऐसे हालात में बच्चों को वक़्त देना बहुत ज़रूरी हो जाता है, उसे बाहर घुमाने ले जाना चाहिए, उसके साथ अलग-अलग खेल खेलने चाहिए, बातें करनी चाहिए, बच्चे को बहुत ज़्यादा समझाना नहीं चाहिए, हर बात में उसकी ग़लतियां नहीं निकालनी चाहिए. बच्चों के व्यवहार के लिए 11 से 16 साल की उम्र बेहद अहम होती है, यही उनके पूरे व्यक्तित्व को बनाती है. ऐसे में उनका विशेष ध्यान देना बेहद ज़रूरी हो जाता है.
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