Saturday, 06 December 2025

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डिजिटल डाटा सुरक्षा : अपराधी और आतंकवादी सॉफ्टवेयर में खामियों का फायदा उठा रहे हैं.....

 

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बहुत से लोगों को डिजिटल डाटा सुरक्षा पर पूरा भरोसा है। इसलिए उन्हें डिजिटल फिंगरप्रिंट का इस्तेमाल करने में कोई दिक्कत नहीं। शायद ये सही नहीं, क्योंकि अपराधी और आतंकवादी सॉफ्टवेयर में खामियों का फायदा उठा रहे हैं।
 
तुर्की में 2017 के अंत में सुरक्षा बलों को एक हैरतअंगेज कामयाबी मिली। देश के पूरब में किर्जेहिर में उन्होंने आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट के दस संदिग्ध समस्यों को गिरप्तार किया। उनके कमरों में सिर्फ प्रचार सामग्री ही नहीं मिली बल्कि ऐसी मशीनें भी जिनकी मदद से जाली बायोमेट्रिक पहचान बनाई जा सकती है। उसमें फिंगरप्रिंट का एक फरमा भी था। उस पर वे इंटरनेट से चुराए गए, बाद में बदले गए और प्लास्टिक फॉइल पर चिपकाए गए फिंगरप्रिंट तैयार करते। इस तरह के बदले गए फिंगरप्रिंट को बड़ी संस्थाओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले सॉफ्टवेयर भी असली मान लेते हैं। अगर एक बार उन्हें पकड़ा न जा सका तो सुरक्षा का गेट हमेशा के लिए खुल जाएगा। इसके सबूत हैं जिहादी पैसे के लेन देन के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
 
पहचान पत्रों और पासपोर्ट की जालसाजी करने के लिए डार्क वेब में बायोमेट्रिक डाटा का कारोबार चल रहा है। चुराए गए डाटा का इस्तेमाल आतंकवादी दूसरे मकसदों के लिए भी कर सकते हैं। लिष्टेनस्टाइन यूनिवर्सिटी के आईटी एक्सपर्ट गुन्नार पोरादा कहते हैं, "अपराधियों और आतंकवादियों की इनका दुरुपयोग करने और इस्तेमाल करने में गहरी दिलचस्पी है।" इस डाटा का इस्तेमाल बैंक अकाउंट खोलने, पासपोर्ट बनाने और उन जगहों पर कंट्रोल के लिए किया जा सकता है जहां फिंगरप्रिंट देना होता है।
 
सुरक्षा की उम्मीद
 
तुर्की की घटना दिखाती है कि इलेक्ट्रॉनिक डाटा पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। ये हर तरह के उपभोक्ताओं के लिए तो लागू होता ही है, यह नागरिकों के लिए भी लागू होता है। मतलब ये हुआ कि न तो व्यावसायिक उद्यम और न ही सरकारी दफ्तर इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि उनके यहां जमा डाटा चोरी से पूरी तरह सुरक्षित है। आम अपराधी चुराए गए डाटा का इस्तेमाल मिसाल के तौर पर किसी और नाम से इंटरनेट में सामान खरीदने के लिए करते हैं।
 
चुराए गए डाटा का स्रोत दुकानों में खरीदी गई सामान्य डिजिटल मशीन भी हो सकती है जो इस तरह के निजी डाटा को सेव करती है। उनकी सुरक्षा तभी संभव है जब उस मशीन का सुरक्षा सॉफ्टवेयर एकदम अपडेटेड है। यूरोपीय नेट सुरक्षा एजेंसी के ऊडो हेल्मब्रेष्ट कहते हैं कि ऐसा अक्सर होता नहीं है, "जब मैं ग्राहक के रूप में कोई प्रोडक्ट खरीदता हूं तो मुझे पता नहीं होता कि उसमें सिक्योरिटी फीचर्स हैं या नहीं, हैं तो फिर कौन से हैं।" आज कल स्मार्टफोन में फिंगरप्रिंट या फेस रिकग्निशन सॉफ्टवेयर आ रहे हैं लेकिन उनके लिए कोई सुरक्षा सर्टिफिकेट नहीं होता। ये ग्राहक के लिए फिंगरप्रिंट या फेस रिकग्निशन डाटा के लिए बड़ा जोखिम है।
 
शेंगेन में जाली पासपोर्ट
 
चुराए गए डाटा का इस्तेमाल सिर्फ आर्थिक अपराधों के लिए ही नहीं होता। उनका दूसरे मामलों में भी खतरनाक इस्तेमाल संभव है। मसलन दुनिया भर में आप्रवासन में। दुनिया के बहुत से देश आप्रवासियों की पूरी तरह शिनाख्त करने की हालत में नहीं हैं। ये बात यूरोपीय संघ के सदस्य देशों पर भी लागू होती है। इन देशों में जाली पहचान के साथ लोग खुद को रजिस्टर करा सकते हैं। पत्रकार सबीना वोल्फ ने यूरोपीय सीमा एजेंसी फ्रंटेक्स के हवाले से कहा है कि शेंगेन के इलाके में बदले चिप वाले जाली पासपोर्ट के कुछ मामले मिले हैं।
 
ऐसा लगता है कि अपराधियों के लिए दूसरे लोगों का डाटा चुराने को बहुत मुश्किल नहीं बनाया जा रहा है। आलोचकों का कहना है कि निवासियों को रजिस्टर करने वाला जर्मन निवासी दफ्तर भी डिजिटल हमले से पर्याप्त रूप से सुरक्षित नहीं है। ये दफ्तर फिंगरप्रिंट लेने के लिए जिस सरकारी कंपनी की मशीन का इस्तेमाल करते हैं जो डाटा को इंक्रिप्शन के बिना ही कंप्यूटर में भेजता है। इसका इस्तेमाल डाटा चुराने वाले कर सकते हैं।
 
संदेह में डाटा सुरक्षा
 
आईटी सुरक्षा एक्सपर्ट गुन्नार पोरादा कहते हैं, "यदि हमलावर की फिंगरप्रिंट या फेस रिक्निशन डाटा तक पहुंच हो तो वह फैसला कर सकता है कि क्या वह उसे इस्तेमाल के लिए कॉपी करना चाहता है।" बदले गए फिंगरप्रिंट का इस्तेमाल जाली पहचान पत्र बनाने के लिए किया जा सकता है। इस तरह का डाटा चुराने के लिए अपराधी निवासी रडिस्ट्रेशन दफ्तरों के कंप्यूटर को हैक कर सकता है या ट्रोजन सॉफ्टवेयर भेजकर वहां से डाटा चुरा सकता है।
 
जर्मनी में डाटा सुरक्षा के लिए ये कोई अच्छी बात नहीं है। लेकिन जर्मन गृह मंत्रालय का कहना है, "नागरिकों के डाटा को आईटी तकनीकों की मदद से इकट्ठा करने और प्रोसेस करने की प्रक्रिया को यथोचित सुरक्षित कहा जा सकता है।" यथोचित सुरक्षित कोई अच्छी खबर नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ ये होगा कि संदेह की स्थिति में यह कतई सुरक्षित नहीं है।
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रिसर्च के अनुसार लड़कों में लड़कियों के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिलता है.....

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कुछ दिन पहले सुबह-सुबह अख़बार उठाया तो एक ख़बर ने अपनी ओर ध्यान खींच लिया. ख़बर में बताया गया था कि दिल्ली के कृष्णा नगर इलाके के एक सरकारी स्कूल में एक छात्र ने स्कूल के ही दूसरे छात्र पर चाकू से हमला किया था. बर के मुताबिक़ दोनों छात्रों के बीच सुबह की प्रार्थना के बाद झगड़ा हुआ, जिसके बढ़ने पर एक छात्र अधिक ग़ुस्से में आ गया और उसने इस हमले को अंजाम दिया. ऐसा नहीं है कि स्कूली छात्रों के बीच हुई आपसी झड़प का यह कोई पहला मामला हो. इससे पहले भी स्कूलों में छात्रों के बीच ग़ुस्से में एक दूसरे के साथ मार पीट के आरोप लगते रहे हैं.

गौर करने वाली बात यह है कि हिंसा की ऐसी कई घटनाओं में किशोर उम्र के बच्चे शामिल पाए जा रहे हैं. बच्चों में ग़ुस्से की यह प्रवृत्ति चिंताजनक हालात पैदा कर रही है.

किशोरों में युवाओं से ज़्यादा ग़ुस्सा

संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में कुल 120 करोड़ किशोर हैं जिनकी उम्र 10 से 19 साल के बीच हैं. यूनिसेफ़ की यह रिपोर्ट बताती है कि साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में किशोरों की संख्या 24 करोड़ से अधिक है. यह आंकड़ा भारत की जनसंख्या का एक चौथाई हिस्सा है. इतना ही नहीं दुनिया भर के सबसे अधिक किशोर विकासशील देशों में ही रहते हैं. बच्चों में ग़ुस्से की प्रवृत्ति उनकी उम्र के अनुसार बदलती जाती. साल 2014 में इंडियन जर्नल साइकोलॉजिकल मेडिसिन में प्रकाशित एक रिसर्च के अनुसार लड़कों में लड़कियों के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिलता है.

इस रिसर्च में शामिल लोगों में जिस समूह की उम्र 16 से 19 वर्ष के बीच थी उनमें ज़्यादा ग़ुस्सा देखने को मिला जबकि जिस समूह की उम्र 20 से 26 वर्ष के बीच थी उनके थोड़ा कम ग़ुस्सा. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि किशोर उम्र में युवा अवस्था के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिलता है. इसी तरह लड़कों में लड़कियों के मुक़ाबले अधिक ग़ुस्सा देखने को मिला. हालांकि, इसी रिसर्च के अनुसार 12 से 17 आयु वर्ग की लड़कियों में क़रीब 19 प्रतिशत लड़कियां अपने स्कूल में किसी न किसी तरह के झगड़े में शामिल मिलीं.

यह रिसर्च भारत के 6 प्रमुख स्थानों के कुल 5467 किशोर और युवाओं पर की गई थी. इस रिसर्च में दिल्ली, बेंगलुरु, जम्मू, इंदौर, केरल, राजस्थान और सिक्किम के किशोर और युवा शामिल थे. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर बच्चों की इस हिंसक प्रवृत्ति के पीछे क्या वजह है? 

बच्चों में गुस्सा

मोबाइल गेम का असर

मनोवैज्ञानिक और मैक्स अस्पताल में बच्चों की कंसल्टेंट डॉक्टर दीपाली बत्रा बच्चों के हिंसक होने के पीछे कई कारण बताती हैं. वो कहती हैं कि सबसे बड़ी वजह है यह पता लगाना कि बच्चों पर उनके परिजन कितनी नज़र रख रहे हैं. डॉक्टर बत्रा कहती हैं, ''बड़े शहरों में माता-पिता बच्चों पर पूरी तरह से निगरानी नहीं रख पाते. बच्चों को व्यस्त रखने के लिए उन्हें मोबाइल फ़ोन दे दिया जाता, मोबाइल पर बच्चे हिंसक प्रवृत्ति के गेम खेलते हैं.''

कोई वीडियो गेम बच्चों के मस्तिष्क पर कैसे असर कर सकता है, इसके जवाब में डॉ. बत्रा कहती हैं, ''मेरे पास जितने भी बच्चे हिंसक स्वभाव वाले आते हैं उनमें देखने को मिलता है कि वे दिन में तीन से चार घंटे वीडियो गेम खेलने में बिताते हैं. इस खेल में एक दूसरे को मारना होता है, जब आप सामने वाले को मारेंगे तभी जीतेंगे और हर कोई जीतना चाहता है. यही वजह है कि वीडियो गेम बच्चों के स्वभाव को बदलने लगते हैं.''

साल 2010 में अमरीका के सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला लिया था कि बच्चों को वो वीडियो गेम ना खेलने दिए जाएं जिसमें हिंसक प्रवृत्ति जैसे हत्या या यौन हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा हो. इस फ़ैसले के पांच साल पहले कैलिफ़ोर्निया के गवर्नर ने अपने राज्य में वायलेंट वीडियो गेम क़ानून बनाया था, जिसके तहत 18 साल से कम उम्र के बच्चों को हिंसक वीडियो गेम से दूर रखने की बात थी.

इसके अलावा अमरीकन साइकोलॉजी की तरफ़ की गई रिसर्च में भी इस बारे में बताया गया था कि वीडियो गेम इंसानों के स्वभाव को बदलने में अहम कारक साबित होते हैं. 

मोबाइल फोन

पॉर्न तक पहुंच

मोबाइल तक बच्चों की पहुंच के साथ-साथ इंटरनेट भी बच्चों को आसानी से उपलब्ध हो जाता है और इसके साथ ही शुरू होती है यूट्यूब से लेकर पोर्न वीडियो की दुनिया. देहरादून की रहने वाली पूनम असवाल का बेटा आयुष अभी महज़ 5 साल का है, लेकिन इंटरनेट पर अपने पसंदीदा वीडियो आसानी से तलाश लेता है. पूनम बताती हैं कि उनके बच्चे ने उन्हीं से मोबाइल पर वीडियो देखने सीखे.

पूनम अपने बच्चे की इस आदत से बेहद परेशान हैं, अपनी परेशानी बताते हुए वह कहती हैं, ''शुरू में तो मुझे ठीक लगा कि आयुष मोबाइल पर व्यस्त है, लेकिन अब यह परेशानी का सबब बनता जा रहा है, वह हिंसक कार्टून के वीडियो देखता है. इंटरनेट पर गाली-गलौच और अश्लील सामग्री के लिंक भी रहते हैं, डर लगा रहता है कि कहीं वह उन लिंक पर क्लिक कर ग़लत चीज़ें ना देख ले.''

डॉक्टर बत्रा भी इस बारे में विस्तार से बताती हैं, ''इंटरनेट की आसान पहुंच से पोर्न भी बच्चों को आसानी उपलब्ध हो रहा है और यह किसी एडिक्शन की तरह काम करता है. इसमें दिखने वाली हिंसा का बच्चों के मस्तिष्क पर बहुत बुरा असर पड़ता है.''

पोर्न के असर को जांचने के लिए साल 1961 में मनोवैज्ञानिक एलबर्ट बंडुरा ने एक प्रयोग किया था. उन्होंने बच्चों को एक वीडियो दिखाया जिसमें एक आदमी गुड़िया को मार रहा था, इसके बाद उन्होंने बच्चों को भी एक-एक गुड़िया पकड़ाई. गुड़िया मिलने के बाद उन बच्चों ने भी अपनी-अपनी गुड़िया के साथ वही किया की जो वीडियो वाला आदमी कर रहा था. 

बच्चा

मां-बाप का आपसी रिश्ता

शहरी जीवन में माता-पिता दोनों ही नौकरीपेशा हो गए हैं, ऐसे में आमतौर पर बच्चों के लिए वक़्त निकालना मुश्किल होता जा रहा है. इसके साथ-साथ विवाहेत्तर संबंध के मामले भी बहुत हो रहे हैं. माता पिता का आपस में कैसा रिश्ता है, इसका असर सीधे तौर पर बच्चों पर पड़ता है.

डॉक्टर बत्रा इस विषय में कहती हैं, ''जब बच्चे देखते हैं कि उनके माता-पिता जो कि उसे हमेशा शांत रहने और सभ्य व्यवहार करने की सलाह देते हैं, वे ख़ुद ही आपस में झगड़ रहे हैं तो बच्चा भी ग़ुस्सा आने पर हिंसक रुख अपनाने लगता है. बच्चों का दिमाग़ इस बात पर स्थिर रहता है कि चीज़ें उनके अनुसार ही होनी चाहिए, जब कोई चीज़ उनकी समझ के विपरीत जाती हैं तो वे अलग ढंग से रिएक्ट करते हैं और इसका नतीजा कई मौक़ों पर हिंसक रूप ले लेता है.''

डॉक्टर बत्रा एक और बात कि ओर हमारा ध्यान ले जाती हैं, वे कहती हैं कि माता-पिता के आपसी रिश्ते के साथ-साथ उनका बच्चे के प्रति कैसा व्यवहार है यह भी बहुत अधिक मायने रखता है. अपने एक क्लाइंट के बारे में डॉक्टर बत्रा ने बताया, ''मेरे एक क्लाइंट थे जो अपने बच्चे को छोटी-छोटी ग़लतियों पर बुरी तरह मारते-पीटते थे, इसका नतीजा यह हुआ कि उनका बच्चा अपना गुस्सा साथी बच्चों पर निकालता था. वह स्कूल में बहुत झगड़ता था.''

बीबीसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि लंबे वक़्त तक जब माता-पिता के संबंध ख़राब चलते हैं तो इससे बच्चों पर उनकी उम्र के अनुसार असर पड़ता है, जैसे नवजात बच्चे की दिल की धड़कने बढ़ जाती हैं, 6 माह तक के बच्चे हार्मोंस में तनाव महसूस किया जाता है वहीं थोड़े बड़े बच्चों को अनिंद्रा जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. 

मां बाप

हॉर्मोन में आता है बदलाव

मोबाइल फ़ोन, इंटरनेट की उपलब्धता और माता-पिता का नौकरी पेशा होना यह सब आधुनिक जीवन के उदाहरण हैं, लेकिन बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति पहले के वक़्त में भी देखने को मिलती रही है. जब मोबाइल या इंटरनेट का बहुत अधिक चलन नहीं था तब भी बच्चे हिंसक रुख़ दिखाया करते थे, इसकी क्या वजह है. डॉक्टर बत्रा बताती हैं कि किशोर अवस्था में आने पर बच्चों में हॉर्मोनल बदलाव होने लगते हैं, उनका मस्तिष्क और शरीर के अन्य अंग तेजी से विकसित हो रहे होते हैं.

वे बताती हैं, ''किशोरावस्था 11 से 16 साल तक समझी जाती है, इस दौरान बहुत तेज़ी से दिमाग़ का विकास हो रहा होता है, इस उम्र में दिमाग़ के भीतर लॉजिकल सेंस का हिस्सा विकसित हो रहा होता है, लेकिन इमोशनल सेंस वाला हिस्सा विकसित हो चुका होता है. ऐसे में बच्चा अधिकतर फ़ैसले इमोशनल होकर लेता है.''

यही वजह है कि इस उम्र के दरम्यान बच्चों के व्यवहार में आसपास के हालात का सबसे अधिक असर पड़ता है, वे चिड़चिड़े-ग़ुस्सैल और कई मौकों पर हिंसक हो जाते हैं. 

बच्चे

कैसे पहचाने बच्चे का बदलता व्यवहार

बच्चों के व्यवहार में बदलाव आ रहा है, इसकी पहचान कैसे की जाए. इस बारे में डॉक्टर बत्रा बताती हैं, ''अगर छोटी उम्र में ही बच्चा स्कूल जाने से आना-कानी करने लगे, स्कूल से रोज़ाना अलग-अलग तरह की शिकायतें आने लगे, साथी बच्चों को गाली देना, किसी एक काम पर ध्यान ना लगा पाना. ये सभी लक्षण दिखने पर समझ जाना चाहिए कि बच्चे के व्यवहार में बदलाव आने लगा है और अब उस पर ध्यान देने का वक़्त है.

ऐसे हालात में बच्चों को वक़्त देना बहुत ज़रूरी हो जाता है, उसे बाहर घुमाने ले जाना चाहिए, उसके साथ अलग-अलग खेल खेलने चाहिए, बातें करनी चाहिए, बच्चे को बहुत ज़्यादा समझाना नहीं चाहिए, हर बात में उसकी ग़लतियां नहीं निकालनी चाहिए. बच्चों के व्यवहार के लिए 11 से 16 साल की उम्र बेहद अहम होती है, यही उनके पूरे व्यक्तित्व को बनाती है. ऐसे में उनका विशेष ध्यान देना बेहद ज़रूरी हो जाता है.

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