Monday, 14 July 2025

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सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद कैसे होगा SC/ST प्रमोशन....

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केंद्र और राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के 2006 के आदेश के बावजूद कानूनी प्रक्रिया का पालन करने में विफल रही हैं, तो फिर इस स्पष्टीकरण से हज़ारों कर्मचारियों का प्रमोशन कैसे हो जाएगा...?

गर्मियों की छुट्टी के दौरान काम कर रही अवकाशकालीन पीठ के जजों ने सरकार के विशेष निवेदन पर सिर्फ यह स्पष्टीकरण दिया कि कानून के अनुसार SC/ST वर्ग में प्रमोशन देने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन उसे प्रमोशन के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश बताकर प्रचारित कर दिया गया, जिससे आने वाले समय में समस्या और जटिल हो सकती है. केंद्र और राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के 2006 के आदेश के बावजूद कानूनी प्रक्रिया का पालन करने में विफल रही हैं, तो फिर इस स्पष्टीकरण से हज़ारों कर्मचारियों का प्रमोशन कैसे हो जाएगा...?

कानूनी रोक न होने के बावजूद सरकार द्वारा प्रमोशन क्यों नहीं : सरकार की तरफ से पेश ASG ने 17 मई के आदेश का उल्लेख किया, जिसके अनुसार सुप्रीम कोर्ट में लम्बित याचिका की वजह से प्रमोशन पर कोई रोक नहीं लग सकती और कानून के अनुसार प्रमोशन दिए जा सकते हैं. आरक्षण विरोधियों की तरफ पेश वरिष्ठ वकील शांतिभूषण ने 2015 के आदेश का जिक्र करते हुए कहा कि इस मामले में संविधान पीठ द्वारा ही कोई भी राहत या अंतरिम आदेश पारित किए जा सकते हैं. इन विरोधाभासी दलीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट की अवकाशकालीन बेंच ने कहा कि अगर कानून के अनुसार प्रमोशन हो सकते हैं, तो फिर सरकार प्रमोशन क्यों नहीं करती...? सरकार ने नागराज मामले में दी गई कानूनी व्यवस्था का पिछले 12 साल से पालन नहीं किया, तो फिर अब सुप्रीम कोर्ट के 'नो ऑब्जेक्शन' मात्र से प्रमोशन में आरक्षण कैसे लागू हो जायेगा...?

प्रमोशन पर 25 साल से चल रही है कानूनी जंग : SC/ST को प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए 1955 में विशेष प्रावधान किए गए, जिन्हें सन् 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले (मंडल कमीशन) में निरस्त कर दिया. 1997 में केंद्र सरकार के डीओपीटी विभाग ने 5 ऑफिस मेमोरैण्डम जारी किए, जिसके बाद वाजपेयी सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण को संविधान में संशोधन के माध्यम से विशेष संरक्षण प्रदान किया. सन् 2006 में नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संविधान पीठ ने प्रमोशन में आरक्षण की नई संवैधानिक व्यवस्था को तो स्वीकार कर लिया, लेकिन इसे लागू करने के लिए अनेक नियम बना दिए, जिनका सरकार द्वारा पालन नहीं किए जाने से पूरा विवाद है.

संविधान में चार संशोधनों के बावजूद प्रमोशन में आरक्षण पर पेंच : संविधान में सभी को बराबरी का दर्जा मिला है, लेकिन इस बारे में अनेक अपवाद भी हैं. SC/ST वर्ग के आरक्षण के लिए अनुच्छेद-16 में विशेष प्रावधान किए गए हैं, परन्तु दूसरी ओर अनुच्छेद-335 में प्रशासन की कार्यकुशलता के बारे में संवैधानिक प्रावधान हैं और इन दोनों में विरोधाभास की वजह से अनेक कानूनी विवाद हो रहे हैं. प्रमोशन में आरक्षण पर पेंच न फंसे, इसके लिए सन् 1995 में 77वां और वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के दौरान सन् 2000 में 81वां, सन् 2000 में 82वां और सन् 2001 में 85वें संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद-16 और 335 में बदलाव कर इस विरोधाभास को खत्म करने की कोशिश की गई. इतने संविधान संशोधनों के बावजूद 14,000 कर्मचारियों का प्रमोशन अटका है, तो फिर किसी भी नए अध्यादेश से यह मामला कैसे सुलझेगा, जिसके लिए केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान समेत अनेक नेताओं ने मांग की है.

प्रमोशन देने के लिए तय शर्तों को पूरा करने में सरकार विफल क्यों : सन् 2006 में नागराज मामले में फैसले से प्रमोशन में आरक्षण के लिए क्रीमीलेयर को मान्यता नहीं मिली, परन्तु आरक्षण में 50 फीसदी की अधिकतम लिमिट बरकरार रही. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह भी व्यवस्था दी गई थी कि पिछड़ेपन के आंकड़ों को इकठ्ठा करने के बाद ही सरकार द्वारा प्रमोशन में आरक्षण दिया जा सकता है. इन आंकड़ों के अनुसार SC/ST वर्ग का नौकरियों में कम प्रतिनिधित्व के आकलन के आधार पर ही चयनित प्रत्याशियों को प्रमोशन में आरक्षण दिया जा सकता है.

अनेक हाईकोर्टों के विरोधाभासी निर्णयों के बाद मामला फिर सुप्रीम कोर्ट में : दिल्ली हाईकोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण देने वाले अगस्त, 1997 के सरकारी आदेश को रद्द कर दिया. बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट में मामला आने पर संविधान पीठ के गठन का फैसला लिया गया है. पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर मामले में 17 मई को पारित अंतरिम आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षित श्रेणी को आरक्षित श्रेणी में, अनारक्षित श्रेणी को अनारक्षित श्रेणी में तथा मेरिट के आधार प्रमोशन देने पर कोई रोक नहीं है.

SC/ST मुद्दे पर संसद का मानसून अधिवेशन हो सकता है हंगामेदार : प्रमोशन में नागराज फैसला और SC/ST उत्पीड़न कानून मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गिरफ्तारी पर रोक जैसे फैसलों के राजनीतिक नुकसान की आहट से केंद्र सरकार में भड़भड़ी का माहौल है. नागराज फैसले को राज्यों के माध्यम से लागू करना है, जिसके लिए 6 साल पहले दिसंबर, 2012 को राज्यसभा में बिल पारित हो गया, लेकिन लोकसभा में राजनीतिक दलों के विरोधाभास से यह कानून नहीं बन पाया. नेताओं द्वारा संसद के माध्यम से कानून बनाने की बजाय सुप्रीम कोर्ट में मामले को ठेलने से प्रमोशन में आरक्षण कैसे लागू होगा...?

विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : 
इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. 

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जेसना मारिया जेम्स : तलाश में उतरे 400 जवान, जंगलों में चल रहा बड़ा सर्च आपरेशन.....

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केरल 5 जून 2018। केरल के कोट्टयम में अचानक गायब हुई बीकॉम की छात्रा जेसना मारिया जेम्स की तलाश में एक बड़ा सर्च आपरेशन चल रहा है। 20 वर्षीय छात्रा की तलाश में 400 जवान जंगलों में उतरे हैं।  निगरानी पुलिस की आईजी और एसपी स्तर के अफसर कर रहे हैं। जंगल में गयी टीम डीएसपी स्तर के अफसर कर रहे हैं। जेसना 22 मार्च को कॉलेज से घर लौटते समय अचानक लापता हो गई.कोट्टयम के SP हरिशंकर ने बताया कि जेसना के परिवार वालों के अनुरोध पर यह तलाशी अभियान शुरू किया गया है. कोट्टयम के इडुक्की के जंगलों में आज सुबह तलाशी अभियान शुरू किया. इडुक्की के जंगलों में एरुमेली, मुंडक्कयम, कुट्टीकनम और पीरुम्ड इलाकों में डीएसपी स्तर के अफसर के नेतृत्व में जवान सर्च आपरेशन चला रहे हैंष।

जानकारी के मुताबिक, जेसना को आखिरी बार वेहूचीरा इलाके में ही एक प्राइवेट बस में सवार देखा गया था. 4 मार्च को विधानसभा में जेसना के गुम होने का मुद्दा उठाया था. पीसी जॉर्ज के सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने विधानसभा को बताया था कि पुलिस इस बात की भी जांच कर रही है कि जेसना देश छोड़कर तो नहीं चली गई. पुलिस ने जेसना का पता बताने वाले के लिए 2 लाख रुपये का इनाम भी घोषित कर रखा है. जेसना का पता लगाने के लिए पुलिस ने अब तक करीब दो लाख फोन कॉल्स खंगाल डाली हैं.

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क्या बैंककर्मियों को उपयुक्त वेतन, भत्ते मिलते हैं?, सरकार भी बैंकरों की सैलरी बढ़ाने को लेकर गंभीर नहीं.... 

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हाल ही में आईबीएफ के साथ यूनियन की बातचीत हुई थी, जिसमें 2 प्रतिशत सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव किया गया था, जिसे बैंकरों ने मंज़ूर नहीं किया.

नौ बैंक यूनियनों के महासंघ की हड़ताल में 10 लाख बैंक कर्मचारियों के शामिल होने का दावा किया गया है. 30 और 31 मई को हड़ताल रहेगी. इनका कहना है कि इंडियन बैंकिंग एसोसिएशन जानबूझ कर यूनियनों की मांग पर फैसला करने में देरी कर रहा है. सरकार भी बैंकरों की सैलरी बढ़ाने को लेकर गंभीर नहीं है. हाल ही में आईबीएफ के साथ यूनियन की बातचीत हुई थी, जिसमें 2 प्रतिशत सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव किया गया था, जिसे बैंकरों ने मंज़ूर नहीं किया. इनका कहना है कि इतना काम करने के बाद अगर 500, 1000 की सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव उनके साथ मज़ाक है. पांच साल से उनकी सैलरी नहीं बढ़ी है. इस बात को लेकर बैंकर कई दिनों से प्रयास कर रहे हैं. दिल्ली में भी स्टेट बैंक मुख्यालय के सामने अपनी मांग को लेकर बैंकर जमा हुए हैं. बैंकर का कहना है कि बैंकों का घाटा उनकी गलती के कारण नहीं बढ़ा है. बड़े उद्योगपतियों ने हज़ारों करोड़ का लोन लिया उसे आम बैंकर नहीं देने गया था. उन्होंने अपना काम ईमानदारी से किया है. इसके अलावा अब बैंकर अपने मूल काम के साथ सरकार की तमाम योजनाएं भी लागू कर रहे हैं. हर दिन योजनाओं को पूरा करने का टारगेट दिया जाता है. बीमा बेचने का टारगेट इनकी ज़िंदगी के लिए मुसीबत बन चुका है. इसे हम क्रॉस सेलिंग कहते हैं.

बैंक सीरीज़ के दौरान अनेक बैंकरों ने पत्र लिखकर बताया कि उनका मूल काम बदला जा रहा है. जब तक निश्चित संख्या में बीमा नहीं बेचते हैं तब तक घर नहीं जाने दिया जाता है और शनिवार रविवार को भी काम करना पड़ता है. 2016 में जब इन बैंकरों पर नोटबंदी का फैसला थोपा गया तो उस चुनौती को स्वीकार किया और दिन रात लगाकर काम किया. आप जानते हैं कि इस दौरान बैंकों में करोड़ों के नोट आ गए, जिससे गिनने में गलती हुई. सड़े गले नोट आ गए और नकली नोट भी चले आए. इसकी भरपाई 20,000 सैलरी पाने वाले कैशियरों ने 5000 से लेकर 2-2 लाख तक अपनी जेब से की है. कई कैशियरों ने हमें लिखा है कि उन्हें अपनी जेब से 20000 देना पड़ा तो किसी को 48000 देना पड़ा. ज़ाहिर है जहां आप दिन के 60-70 लाख नोट गिनते हों, वहां आप 5 करोड़ 10 करोड़ गिनने लगें तो चूक होगी. 
कई बैंकों में नोट गिनने की मशीन तक नहीं थी उस वक्त. हमारे पास पूरी जानकारी नहीं है कि सारे कैशियरों ने मिलकर नोटबंदी के समय कितना पैसा अपनी जेब से जुर्माना के तौर पर दिया है. ये सब कहानी बैंकर छिपा गए, क्योंकि इन्हें लगा था कि इनके त्याग से सरकार खुश होगी और सैलरी बढ़ा देगी क्योंकि इनकी सैलरी काफी होती जा रही है. ऐसा ये दावा करते हैं. 



बैंक सीरीज़ के दौरान हमें कई महिला बैंकरों ने लिखा था कि उनकी शाखा में महिला शौचालय तक नहीं है. कई जगहों में तो स्त्री पुरुष दोनों के लिए एक ही शौचालय है. महिला बैंकरों का कहना है कि सिर्फ छह महीने का मातृत्व अवकाश मिलता है, जबकि केंद सरकार की नौकरियों में दो साल का चाइल्ड केयर लीव मिलता है. अगर वे बिना सैलरी के छुट्टी लेती हैं तो वो छुट्टी भी आसानी से नहीं मिलती हैं. उसकी प्रक्रिया काफी जटिल है. दिल्ली में सुशील महापात्रा ने इन सवालों पर कई महिला बैंकरों से लंबी बात की है. क्या यही बैंकर बैंकों की स्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं. 2012 में जो सैलरी बढ़नी थी वो 2015 के अंत में बढ़ी. 2017 में जिसे बढ़नी चाहिए थी वो अभी तक नहीं बढ़ी है. इस दौरान बैंकरों का धीरज जवाब दे रहा है क्योंकि उनका ख़र्च नहीं चल रहा है. इसका एक ही उपाय है, हर बैंक में गोदी मीडिया का हिन्दू मुस्लिम सिलेबस और प्रोपेगैंडा रोज सुबह एक घंटा दिखाया जाए. मेरा विश्वास है कि ये लोग फ्री में काम करने लगेंगे. वैसे प्राइम टाइम पर कई हफ्ते सीरीज़ चलाने से भी बैंकरों को कोई लाभ नहीं हुआ. हमने पता किया कि पांच साल नौकरी कर चुके क्लर्क और मैनेजर को हाथ में कितना मिलता है, ताकि आप एक दर्शक के तौर पर जान सकें कि जिस बैंक की नौकरी को अच्छी नौकरी समझा जाता था, आज उसकी हालत क्यों हुई है. पांच साल अनुभव वाले क्लर्क को करीब 27000 मिलता है. वहीं, पांच साल अनुभव वाले अफसर को 32-34000 मिलता है.

क्या यह कम नहीं है जबकि वे काम कितना करते हैं. सारे सरकारी बैंक ऐतिहासिक घाटे से गुज़र रहे हैं. उनकी हालत लगातार बिगड़ रही है. इसके अलग अलग कारण हैं मगर सबका प्रभाव यही है कि 2017-19 में बैंकों का घाटा अब कई हजार करोड़ का होने लगा है. हम कुछ बैंकों का घाटा बताने जा रहे हैं. पंजाब नेशनल बैंक का घाटा- 12, 282 करोड़, आईडीबीआई का घाटा 8,237 करोड़, एसबीआई का घाटा 6547 करोड़, बैंक ऑफ इंडिया का 6043 करोड़, ओरियंटल बैंक ऑफ कार्मस का घाटा 5871 करोड़, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का घाटा 5247 करोड़ है. एक सवाल खुद से कीजिए क्या हर बैंक में इतने निठल्ले और नकारे बैंकर बैठे हैं कि उन्हीं की वजह से करीब 80,000 करोड़ तक का घाटा हो गया या कोई और जिम्मेदार होगा इसके लिए. जैसे कि सरकार, प्रबंधन, उद्योगपति. आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में एक रिपोर्ट है कि जो लघु वित्त बैंक का एनपीए भी 5-6 प्रतिशत हो गया है, जो नोटबंदी के पहले के साल में 1 प्रतिशत था. एनपीए मतलब लोन लिया मगर चुका नहीं पाए. बिजनेस स्टैंडर्ड ने ही छापा है कि 2017-18 की चौथी तिमाही में 37 बैंकों के एनपीए में 1 लाख 40 हज़ार करोड़ और जुड़ गए हैं. क्या इसके लिए भी आम बैंकर ज़िम्मेदार है. धारणा बनाने के पहले तथ्यों को ठीक से देख लेना चाहिए. इसलिए बैंकरों ने अपनी मांग पत्र में इस बात को शामिल किया है कि अक्सर स्टाफ को देर तक काम करने के लिए बाध्य किया जाता है, उसका समय दर्ज हो. मौखिक आदेश से काम बंद हो, काम के समय में बदलाव का आदेश लिखित आए. किसी भी स्टाफ को लगातार सात दिन से ज़्यादा काम करने के लिए बाध्य न किया जाए. आठ घंटे से ज्यादा वे काम न करें, सप्ताह में 40 घंटे ही काम करने को कहा जाए. सभी शनिवार को छुट्टी है जो अब शायद ही कभी मिलती है.

ज़ाहिर है बैंकरों को इससे ज्यादा करना पड़ता है. तभी उनकी मांगपत्र में इन बातों का ज़िक्र आया है. एक मांग यह भी है कि धमकाने और दबाव डालने के लिए तबादले का इस्तमाल बंद कर दिया जाना चाहिए. मांग पत्र को देखने से लगता है कि बैंकर सैलरी तो चाहते हैं मगर काम करने के हालात में भी भयंकर गिरावट आई है. इसमें पेंशन की भी मांग है जिसके बारे में अब कोई बात नहीं करना चाहता. विधायक सांसद खुद पेंशन लेते हैं मगर दूसरों को पेशन न मिले इसके लिए नीतियां बनाते हैं. आप इस वक्त स्क्रीन पर ग्रामीण डाक सेवकों के अलग-अलग जगहों से भेजी गई तस्वीरें देख रहे, पिछले 17 दिनों से भारत भर के ग्रामीण डाक सेवक हड़ताल पर हैं. ये तस्वीरें ग्रामीण डाक सेवकों की हैं, जो हैरान हैं कि पौने दो लाख डाक सेवक होने के बाद भी उनकी हड़ताल को कवरेज नहीं मिल रहा है. जब दस लाख बैंकर पर कोई चर्चा नहीं है तो पौने दो लाख वाले को भी समझना चाहिए कि मीडिया के लोकतंत्र में असली लोग नहीं आते हैं. इन डाक सेवकों को भी पूछना चाहिए कि हड़ताल से पहले अखबारों और चैनलों में क्या देख रहे थे, क्या पढ़ रहे थे, क्या उन्होंने अपवाद छोड़कर आम लोगों की आवाज़ देखी है, जब नहीं देखी तो उनकी आवाज़ कैसे नज़र आएगी.

ग्रामीण डाकसेवकों ने सब करके देख लिया. सब्ज़ी बेच ली, कपड़े उतार लिए, तरह तरह की भंगिमाएं आईं मगर उनका दिल टूट गया. उन्हें लगा था कि देश की बाकी समस्याओं की तरह उनके हालात पर भी डिबेट होगा. ये फरीदाबाद के डाकघर की तस्वीर है. हड़ताल के कारण चिट्ठियां पड़ी हैं. लोगों के कितने ज़रूरी कागज़ नहीं पहुंच रहे होंगे. मगर ग्रामीण डाक सेवकों की सुन तो लीजिए ताकि उन्हें ये न लगे कि कोई सुनने वाहसाब से सैलरी देनी चाहिए. 35 साल की नौकरी करते हुए ये डाकसेवक पैकर मात्र 7-8000 सैलरी पाते हैं. अगर ऐसा है तो क्या यह दुखद नहीं है. 35 साल की नौकरी के बाद 7000 ला नहीं है. इनका कहना है कि चार साल पांच साल काम करने के बाद हाथ में छह हज़ार मिलता है, इससे इनका गुज़ारा नहीं चल रहा है. सरकार को इन्हें भी सातवें वेतन आयोग की सैलरी देनी चाहिए. इन्हें पेंशन तक नहीं मिलती है. मोदी सरकार के समय ही कमलेश चंदा कमेटी बनी थी, उसने भी सैलरी बढ़ाने की बात कही थी, मगर नहीं बढ़ाई जा रही है. लिहाज़ा देश के अलग-अलग जगहों पर ग्रामीण डाक सेवक हड़ताल पर हैं. मेरी तो समझ से बाहर है कि वे 5000 की सैलरी पर कैसे गुज़ारा करते होंगे. शायद यही वो भारत है जो 99 प्रतिशत आता है जिसके पास कुछ नहीं है. 1 प्रतिशत भारतीयों के पास इतनी संपत्ति है जितनी 70 प्रतिशत भारतीयों की संपत्ति के पास है.

ऐसा नहीं है कि जनता संघर्ष नहीं करती है, कर रही है मगर हो क्या रहा है. कोई नतीजा निकल रहा है, शायद नहीं. ग्रामीण डाक सेवकों के कई सारे वीडियो आए हैं. इन वीडियो में एक ट्रेंड देख रहा हूं. सूरत के कपड़ा व्यापारी भी जब आंदोलन कर रहे थे तब उनका एक वीडियो आया था. उस वीडियो में वे गीत गा रहे हैं, अनुनय विनय कर रहे हैं जैसे कोई अपनी प्रेमिका से करता हो, उन गानों में आक्रोश नहीं है, ज़िंदाबाद मुर्दाबाद नहीं है, उसी तरह का एक वीडियो मिला है, आप देखिए और समझिए कि ग्रामीण डाक सेवक क्या कहना चाहते हैं. हमने मुज़फ्फपुर के ग्रामीण डाक सेवक से बात की. उन्होंने बताया कि वे ब्रिटश जमाने से गांवों में डाक ले जा रहे हैं. पोस्टल विभाग के तहत काम करते हैं मगर विभाग उन्हें अपना कर्मचारी नहीं मानते हैं. इन लोगों ने अपनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट और कैट से जीत ली है मगर अभी तक इन्हें कर्मचारी के रूप में मान्यता नहीं मिली है. जबकि ये गांव-गांव में साइकिल चलाकर चिट्ठियां बांटते हैं. इस बीच 16 दिनों तक लगातार पेट्रोल के दाम बढ़ने के बाद आज कमाल ही हो गया. 1 पैसे सस्ता हो गया, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत साढ़े चार डॉलर कम हो चुकी है. 1 पैसे की कमी को कम न समझें.

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 CBSE : एजुकेशन सिस्टम पर सवाल उठ रहे हैं।, खतरनाक हैं स्टूडेंट्स को इतने ज्यादा नंबर....

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एक्सपर्ट्स बोले, बच्चों के लिए खतरनाक हैं इतने ज्यादा नंबर, इस अंधी होड़ में न भागें.

मंगलवार को CBSE के 10वीं बोर्ड के नतीजे आए। इनमें 1,31,493 स्टूडेंट्स को 90% से ज्यादा तो 27,476 स्टूडेंट्स को 95% से ज्यादा मार्क्स आए हैं। वहीं, रिजल्ट के तुरंत बाद उम्मीद से कम नंबर आने पर तीन बच्चों ने सुसाइड कर लिया।  आखिर सीबीएसई की एग्जाम में स्टूडेंट्स को इतने नंबर क्यों मिल रहे हैं? और नंबरों की इस अंधी दौड़ ने क्या बच्चों और पैरेंट्स पर एक्स्ट्रा प्रेशर नहीं डाल दिया? नंबरों की इस मार-काट वाली प्रतिस्पर्धा ने हमारे पूरे एजुकेशन सिस्टम पर ही सवाल खड़े कर दिए है। 

नंबर्स की बाढ़ से बढ़ेंगी ये 3 प्रॉब्लम :

1.अनावश्यक प्रेशर बढ़ेगा :सीबीएसई के पूर्व चेयरमैन अशोक गांगुलीकहते हैं कि नंबरों की यह दौड़ चिंताजनक है। बच्चों पर प्रीमियम परफॉर्मेंस के लिए जोर दिया जा रहा है। इससे न केवल बच्चों और पैरेंट्स पर प्रेशर बढ़ेगा, बल्कि जिन बच्चों के ज्यादा नंबर नहीं आएंगे या 70-75 फीसदी मार्क्स लाने वाले बच्चे अपने फ्यूचर को लेकर दुविधा में आ जाएंगे।

2.बढ़ेगा फ्रस्टेशन : एनसीईआरटी के पूर्व डायरेक्टर और शिक्षाविद्जेएस राजपूत एक उदाहरण देते हुए कहते हैं कि रिजल्ट डिक्लेयर होते ही एक बच्चा उनके पास आया। उसके 95 फीसदी मार्क्स थे। वह बहुत खुश था। लेकिन जब वह स्कूल गया तो वहां स्कूल मैनेजमेंट ने एक लिस्ट लगा रखी थी जिसमें उसका 47वां नंबर था। वह यह देखकर वह फ्रस्टेट हो गया। वे कहते हैं कि कम नंबर्स लाने वाले बच्चे तो फ्रस्टेट होंगे ही, जिन बच्चों के अधिक नंबर आए हैं, उन्हें भी भविष्य में दिक्कत हो सकती है। अब उनसे हमेशा बेहतर परफॉर्म करने की उम्मीद रहेगी। अगर वे फ्यूचर में अच्छा परफॉर्म नहीं करते हैं तो उनमें और ज्यादा फ्रस्टेशन आएगा। मनोवैज्ञानिक रूप से ऐसे बच्चे ज्यादा परेशान होंगे।

3.इमेजिनेशन के लिए जगह ही नहीं होगी: शिक्षा पर काम करने वाले बड़े एनजीओ में से एक एकलव्य के एक्स डायरेक्टर सुब्बू सी.एन. कहते हैं कि सीबीएसई की वैल्यूएशन की मौजूदा पूरी पद्धति ही ऑब्जेक्टिव टाइप है। सीबीएसई के इस सिस्टम में इमेजिनेशन और सोच-विचार के लिए जगह ही नहीं बचेगी। बिल्कुल टाइप्ड टैलेंट निकलकर आएगा जिसके पास इनोवेशन करने के लिए कुछ नहीं होगा।

तो ये हैं इसके 3 सॉल्यूशन :

1.अशोक गांगुलीकहते हैं कि नंबर्स की इस स्फीति (Marks Inflation) को कंट्रोल करना चाहिए, क्योंकि यह फ्यूचर के लिए हेल्दी ट्रेंड नहीं है। जिनके ज्यादा नंबर्स नहीं आ पाते हैं, उनकी प्रॉपर काउंसिलिंग करके बताना चाहिए कि कम नंबर्स के बावजूद वे कैसे मीनिंगफुल लाइफ जी सकते हैं।

2.जेएस राजपूतकहते हैं कि हमें ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जिसमें टैलेंट का पैमाना केवल नंबर नहीं हो। बच्चों की प्रतिभा को सही ढंग से आंकने के लिए हमें एक प्रॉपर सिस्टम बनाना होगा।

3.डॉ. शिखा रस्तोगी (सीबीएसई में काउंसलर और साइकोलॉजिस्ट) कहती हैं कि पैरेंट्स की बड़ी जिम्मेदारी है कि वे नंबर्स को लेकर पैनिक होने के बजाय बच्चों को केवल अच्छी स्टडी करने को मोटिवेट करें। बच्चों में यह विश्वास जगाएं कि कम नंबर्स आने के बावजूद वे उनके साथ हैं और हमेशा साथ रहेंगे, क्योंकि जिंदगी नंबर्स से नहीं चलती।

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